जीवन... सीखते रहने का नाम है

जीवन... सीखते रहने का नाम है

लिखाई की एक निश्चित उम्र होती है,

सामान्य अर्थों में यह मान्यता सही भी है कि बचपन से लेकर युवारंभ तक की गई पढ़ाई या सीखी गई बातों की जीवन को ढालने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं।

किन्तु मनुष्य के जीवन में अकादमिक शिक्षा से अलग भी सीखने को बहुत कुछ है।

किताबों से आगे भी ज्ञान है। डिग्रियों के परे भी शिक्षा के अनंत आयाम है।

हम में से कई वयस्क ऐसे होंगे जो अपने कैशोर्य या बचपन में किसी संगीत यंत्र बजाना सीखना चाहते होंगे

किन्तु उस समय पारिवारिक स्थिति या आर्थिक कारणों से उसे नहीं सीख पाएँ।

फिर कैरियर , विवाह आदि में उलझे रहने के कारण समय नहीं निकाल पाये

किन्तु अब चालीस या पचास की उम्र में जब थोड़ी फुर्सत मिली हो और फिर से दोबारा वह निष्कलुष लालसा सिर उठाने लगी हो।

तो क्या उसे यह कहकर दबा दें कि अब तो उम्र हो गई , अब लोग क्या कहेंगे , अब सीख पाऊँगा क्या।

इस तरह के कई अवरोधक विचारों को ओढ़ आदमी दुखी हो जाता है।

पेंटिंग , शतरंज , संगीत , कोई नई थेरेपी , ध्यान पद्धति , योग इत्यादि सीखने के लिए उम्र का मुंह जोहना एक ख़राब बहाना है और अपनी जिज्ञासा एवं सपने के प्रति घोर अन्याय भी।

जीवन के जिस पड़ाव पर थोड़ा वक़्त निकाल सकें तो अपने उस सुसुप्त बीज को इच्छा शक्ति के जल -खाद से उसे पनपने का मौका दें।

लोग तनाव रहित होने के लिए कई गलत रास्ते चुनते हैं जैसे कि मधपान , ध्रूम्रपान इत्यादि

लेकिन इसके बजाय किसी कौशल को सीखने में मन लगाया जाए तो मन के विचारों की दिशा ही बदल जाएगी।

ओवर थिंकिंग , बेचैनी आदि खाली दिमाग की उपज हैं।

इस खालीपन को किसी सकारात्मक हॉबी से भरें।

कई शोध ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं जहां नए कौशल और नई हॉबी की तरफ मुड़ने से कई लोगों के डिप्रेशन एवं अन्य मानसिक बीमारियों के लक्षण जाते रहे हैं।

जहां तक उम्र की बात हैं तो संसार में ऐसे कई मिसाल मिलते हैं जहां जीवन के अंतिम पड़ाव में ही लोगों ने कुछ ऐसा चमत्कार किया कि वे शून्य से शिखर-पुरुष बन गए।

व्यवसाय की बात करें तो रे क्रो ने 56 वर्ष में प्रसिद्ध मैक्डोनाल्ड्स चेन की स्थापना की

कर्नल सैंडर्स ने 65 वर्ष में केएफसी का पहला आउटलेट खोला

खेल की बात करें तो जापान के 105 वर्षीय धावक हिडकीची मियाजाकि ने 42.22 सेकंड्स में 100 मीटर डैश कम्पलीट कर नया विश्व रिकॉर्ड बनाया.

सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन की बात करें तो महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई 48 साल की उम्र में शुरू की थी।

ग्रामीण बैंक के फाउंडर और नोबल शांति पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस ने 43 साल की उम्र में ग्रामीण बैंक की शुरुआत की।

कला के क्षेत्र में मशहूर अभिनेता बोमन ईरानी ने 44 साल की उम्र में एक्टिंग करनी शुरू की।

विज्ञान की बात करें तो 97 साल के जॉन गुडइनफ सबसे ज्यादा उम्र में नोबेल प्राइज पाने वाले वैज्ञानिक बने

तो चार्ल्स डार्विन ने 50 वर्ष की उम्र में अपनी सबसे प्रसिद्ध किताब ओरिजिन ऑफ स्पीशीज लिखी।

यह सब तो बहुत बड़ी उपलब्धियां हुईं लेकिन कई साधारण उपलब्धियां भी जीवन में खुशियों के रंग बिखेर देती हैं

जैसे कि केरल की 105 वर्षीय परदादी चौथी कक्षा के समकक्ष परीक्षा उत्तीर्ण कर देश की सबसे अधिक उम्र वाली विद्यार्थी बन गई।

हमारे आस पास कई ऐसे साधारण लोग मिल जाएंगे जो पचास की उम्र में कोई हुनर , कोई कौशल , कोई विद्या सीखनी शुरू की और उस हुनर में ऐसे महारथी हो गए कि युवाओं को भी कहना पड़ा ‘वाह! ताऊ तुस्सी कमाल हो।“

ये बातें स्त्री –पुरुष दोनों पर समान रूप से लागू होती हैं।

महिलाओं की शादीशुदा ज़िंदगी के 15 -20 वर्ष बहुत व्यस्त गुजरती हैं।

बच्चे थोड़े बड़े होते हैं , तो गृहणियों के पास ढेर सारा समय निकल आता हैं उस समय को वे फालतू के गप शप , ढलती उम्र की शिकायतों की बजाए किसी कला या किसी छोटे मोटे व्यवसाय की ओर मोड़ दे तो वे जीवन के नए रंग को ढूँढने में कामयाब रहेगी।

इसी मोड़ पर सीखने की ललक को किसी को लोकप्रिय लेखिका बना दिया , कोई नर्तकी बन गई , कोई योग गुरु।

बस ठान लेने भर की देर है।

एक कदम बढ़ाने भर का फासला है। हिचक और मन के अवरोध कदम-दर-कदम दूर होने शुरू हो जाते हैं।

मुश्किल चीज़ें अभ्यास से सरल लगने लगती हैं।

अगर आप संगीत सीखना चाहते हैं तो छह महीने की फीस एक बार में भुगतान कर दें, मन को वापस लौटने का मौका ही न दें।

यदि जिम या योगाभ्यास सीखना चाहते हैं तो कुछ महीने बहानों को नज़र अंदाज करके मन को टिकाये रखे... रस आना शुरू हुआ , फायदा मिलना शुरू हुआ कि यह एक उम्र भर का बीमा बन जाएगा।

यह सच है कि जादू एक दिन में नहीं होता लेकिन अभ्यास के उबाऊ रास्ते पर जमे रहे तो वह दिन ज़रूर आएगा जिसके बाद जीवन का हर दिन जादू से भरा होगा।

तो आयु को अपनी ऊर्जा पर हावी न होने दें; कोई एक छूटी अच्छी आदत या कोई एक नई कला , नया हुनर ज़रूर सीखें

मनोविज्ञान कहता है – “ निरंतर सीखने वाला मस्तिष्क कभी बूढ़ा नहीं होता।“

लेखक :- गौतम कुमार सागर ( वडोदरा)

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